राह से भटकती नारी (कहानी)
“उर्वशी उठो. आपने तीन दिन से न कुछ खाया और न पीया है. ऐसे कैसे चलेगा प्रिये? चलो, उठो. हाथ मुंह धोकर तरो ताज़ा हो जाओ,” शशांक ने प्रेम से उसका हाथ पकड़ा और उसे उठाने का प्रयास करने लगा.
उर्वशी ने उसका हाथ झटक दिया और शशांक की ओर आग्नेय दृष्टि से देखा. वह बोली कुछ नहीं.
शशांक उसकी नज़र देख कर सहम गया. उर्वशी के माता पिता दूर खड़े वो सब देख रहे थे. वे दोनों शशांक के हौंसले और सहनशीलता के पहले से ही कायल थे मगर अपनी बेटी के दुर्व्यवहार को देख कर आज तो वे उसके दीवाने हो गए थे और यह समझने में देर न लगी थी कि उनकी अपनी बेटी कितनी गुस्ताख है?
बताने कि कोई दरकार नहीं लगती कि शशांक और उर्वशी का क्या रिश्ता है? हाँ, ये बताना आवश्यक हो जाता है कि दोनों में मनमुटाव क्यों हुआ?
उर्वशी को क्लब्स का चस्का था और शशांक था सीधा सादा और वह नहीं चाहता था कि उसकी उर्वशी क्लब्स की चकाचौंध में कहीं खो जाए. बस इतनी सी बात पर उर्वशी ने तीन दिन से घर को कोपभवन बना डाला था.
उर्वशी की माताजी रक्षिता आगे बढ़ी, उर्वशी की ठोढ़ी पकड़ कर ऊपर को उठाया और उसकी आँखों में आँखें डाल कर बोली, “क्या मैने तुम्हें यही संस्कार दिए थे उर्वशी कि पति का यूँ तिरस्कार करो? दूसरी बात, चुनाव तुम्हारा था और हमने आपकी बात मान कर शशांक से शादी करवा दी थी. अब यह तमाशा क्यों?”
उर्वशी कुछ नहीं बोली. न उसने कोई उत्तर दिया और न ही उठी. वह गुमसुम बैठी रही. उसे बैठे देख कर रक्षिता का चेहरा तमतमा उठा.
शशांक ने देखा. वह भी सिहर गया क्योंकि वह अपनी सास के क्रोध को एक दो बार पहले भी देख चुका था.
उसने कहा, “माताजी, आप शांत हो जाएँ. आपका रक्तचाप वैसे भी अधिक ही रहा करता है.”
वैभव, उर्वशी के पिताजी ने कहा, “देखो उर्वशी, हमने आपकी इसलिए जिद मान ली थी क्योंकि शशांक जी को घर-दामाद बनने में कोई बाधा न थी. मगर घर में हमें अशांति कतई स्वीकार नहीं. अगर तुम्हें मनमानी करनी है तो आप यहाँ से कहीं और जा सकती हो. हम बूढ़े ज़रूर हुए है मगर अशक्त और लाचार कभी नहीं. हम पति पत्नी जीवन भर शांति के साथ जीए हैं और शांति के साथ ही मरना चाहते हैं.”
शशांक सास का रुख देख कर पहले ही सहमे हुए थे, ससुर की दो टूक सुन कर तो वह पत्थर सा हो गया. तय नहीं कर पा रहा था कि क्या कहे और क्या करे?
ससुर को शांत करते हुए शशांक बोले, “पिताजी, आप फ़िक्र न करें. उर्वशी अभी अनुभवहीन बच्ची सी है. उसको अपनी सुंदरता पर नाज़ है. वो सोचती है कि मैं भंवरा बना इसी के इर्दगिर्द मंडराता रहूँ. इसे कई बार समझा चुका हूँ कि हमें वासना कतई पसंद नहीं है.”
वैभव तो इस पर चुप रहे मगर सास बोली, “बेटा, हम नहीं चाहते कि आप दोनों में कोई क्लेश हो. हम पति-पत्नि अकेले रह सकते हैं. आप कोई अन्य स्थान देख लो जिससे शान्ति के साथ जीवन बिता सको. हम भी चैन से रह सकें. हमारी फ़िक्र न करो.”
“माताजी, उर्वशी को जहाँ जाना है, जाए. जहाँ रहना है, रहे. हम आपके साथ ही रहेंगे. बचपन तो अनाथालय में गुज़रा था. सौभाग्य से माता-पिता का साया मिला है, उससे हम अब वंचित नहीं होने वाले.”
“नहीं बेटा, हम आपसे दूर थोड़े ही होंगे. कभी आप दोनों हमारे पास तो कभी हम दोनों आपके पास आते जाते रहेंगे,” सास ने सांत्वना देते हुए कहा.
“मगर यही कौन निश्चित है माताजी कि अलग रहने से उर्वशी की आदतों में सुधार हो जायेगा. न इसने अपने फैशन छोड़ने हैं न ऐयाशी और न ही अपनी चांडाल चौकड़ी. यहाँ तो आप भी है जो इसको टोकती रहती हैं. अलग होने के बाद तो ये बिन लगाम की घोड़ी हो जायेगी.”
इस पर उर्वशी ने तो जलती आँखों से और ससुर ने आदेशात्मक नज़रों से शशांक की ओर निहारा.
ससुर बोले, “तो लगाओ न इसको लगाम, रोका किसने है बेटे? याद रखो, बेटा हो या बेटी, पत्नि हो या पति, उनको आज़ादी उतनी ही मिलनी चाहिये जिससे उनका विकास अवरुद्ध न हो. अति ठीक नहीं होती.”
सास आगे बढ़ी और बोली, “काश, ये लगाम आप ही लगा देते तो ये दिन न हमें देखने को मिलते और न ही दामादजी को.”
अब की बार उर्वशी ने अपनी माँ की ओर आग्नेय दृष्टि से देखा. शशांक तिलमिला उठा. टहनी की तरह उसका शरीर गुस्से से कांप रहा था.
वो चीखा, “खबरदार उर्वशी, हम आपकी हेकड़ी बर्दाश्त कर सकते हैं मगर माताजी पिताजी को आंखें दिखाई तो याद रखना की हम भूल जायेंगे की तुम हमारी पत्नि हो.”
उर्वशी को शशांक का रौद्र रूप पहली बार देखने को मिला था. एक बारगी तो वह भी सहम गई. मगर संभलते हुए वह बोली, “लगता है इस घर से मेरा दाना पानी उठ गया है. जिस नर्क में दम घुटता हो, वहाँ रहने से क्या लाभ? आप मेरे साथ चलते हो या नहीं?”
“कतई नहीं,” शशांक ने उसी रौद्र रूप से दो शब्द टका सा उत्तर दे दिया.
“एक बार फिर पूछ रही हूँ, चलते हो या नहीं?”
“बेअक्ल होने के साथ साथ बहरी भी हो क्या?”
इतना सुनना था कि उर्वशी ने अपनी अटैची उठाने के लिए हाथ बढ़ाया तो उसके पिताजी ने कहा, “यहाँ की किसी भी चीज़ पर अब तुम अधिकार खो चुकी हो. अटैची को हाथ न लगाओ.”
शशांक ने कहा, “पिताजी, जो ये ले जाना चाहें, ले जाने दें. ये अपनी तुच्छता पर उतारू हैं तो आप अपनी गुरुता तो न छोड़ें.”
“देखा उर्वशी, इसे कहते हैं संस्कार. वाह बेटा वाह. हम दोनों का आशीर्वाद सदा आपके साथ रहेगा.”
“मुझे नहीं चाहिए कुछ भी. मैं जाती हूँ,” उर्वशी ने बेरुखाई से उत्तर देते हुए कहा और घर से बाहर निकल गई.
“बेटा, अब मुझे चुपचाप इसका पीछा करना होगा. ये जानकारी हमें रखनी ही होगी कि ये किसके पास जाती है?”
“पिताजी, हमें क्या लेना देना?”
“नहीं बेटा, ये तो बेवकूफ है. इसकी बेवकूफी का कोई भी नाजायज़ लाभ उठा सकता है. इसके अलावा हमें पुलिस में भी सूचना देनी होगी. आजकल औरतें झूठे आरोप लगाने में भी पीछे नहीं. हमें किसी संभावित मुसीबत से बचना चाहिए.”
“ठीक है पिताजी. आप आराम करें. मैं देखता हूँ कि वो कहाँ जाती है?”
शशांक ने लौट कर बताया कि वो किसी अमर के घर गई है.
“अमर! अरे वह तो उसके साथ पढ़ता था. कहीं उसी ने तो उर्वशी को अपने जाल में नहीं फंसाया है? उर्वशी ऐसी तो नहीं थी जैसा वह अपना रूप दिखा कर गई है?”
वैभव और शशांक थाने गए. वहाँ जाकर लिखित सूचना दी कि उनकी बेटी और शशांक की पत्नि खुद घर छोड़ कर चली गई है और उन्होंने उसे अपनी जायदाद से बेदखल भी कर दिया है.
सात दिन बाद उर्वशी का शव नाले के पास मिला और अमर जेल में पड़ा सड़ रहा है.
शशांक ने अपना पति धर्म निभाया और उसका अंतिम संस्कार किया. सास-ससुर ने पुनर्विवाह कराना चाहा मगर शशांक ने नम्रतापूर्वक मना कर दिया.
बेटी की मौत के गम में एक सप्ताह बाद उसकी माँ चल बसी और एक माह बाद पिताजी.
आज शशांक एकांत जीवन जी रहे हैं.
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