मैं. मैं और मैं
(कहानी)
हम एकांत में रहते हैं. एकांत अच्छा लगता है. एकांत मुक्त करता है. एकांत एकाग्र होने में मदद करता है. अगर आपको समय का सकारात्मक और सृजनात्मक सदुपयोग करना है तो एकांत को चुनो. एकांत को अपनाओ. एकांत को जीओ, एकांत को पीओ, एकांत को खाओ, एकांत को ओढ़ो, एकांत को पहनो और फिर देखो एकांत आनंद.
अरे आप तो ये पढ़ कर घबरा ही गए कि आज किस पागल लेखक से पाला पड़ा है जो एकांत को खाने, पीने, ओढ़ने, पहनने की कह रहा है. एकांत भी कोई खाने, पीने और ओढ़ने पहनने की चीज है?
आपने ठीक कहा हमारे प्रिय प्रबुद्ध पाठक. एकांत में जीने, खाने, पीने और ओढ़ने का अर्थ है एकांत में ही खो जाओ. उसी में डूब जाओ जिससे किसी पुरुष को आभास न रहे कि कोई कमला, विमला, निर्मला भी है और स्त्री को आभास न रहे कि कोई मोहन, सोहन और त्रिलोचन भी है.
मगर एकांत के विपरीत अकेलापान काटता है. आजकल हम अकेलापन अनुभव कर रहे हैं. अकेलापन क्यों अनुभव कर रहे हैं? क्योंकि आजकल हम सिर्फ मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं ही सुनते रहते हैं. अब आप ही बताएं कि जब मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं का चारों ओर बोलबाला और शोर हो तो अकेलापन महसूस न होगा तो क्या होगा?
वैसे भी हमारी उम्र के दोस्त और दोस्तानियाँ सभी हमें छोड़ गये हैं और वे ऐसी जगह चले गए हैं जहाँ से कोई लौट कर आ भी नहीं सकता.
न हम उन दोस्त दोस्तानियों के पास रहते थे और न वे हमारे पास. मिलना जुलना भी कम ही हो पाता था. फिर भी वे अपने थे और हम उनके. लगता था कोई तो है हमारा जिससे चर्चा कर सकते थे, विमर्श कर सकते थे और मन की बात कर सकते थे. वे या हम मैं, मैं और मैं कभी भी नहीं करते थे. हम और वे हम थे.
अब आप ही बताएं कि मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं के इस शोर शराबे भरे बाज़ार को बिना संगी साथी के कैसे झेल सकते हैं?
उधर शहंशाह-ए-हिंद कहते हैं कि एक अकेला मैं, सब पर भारी. वो अकेला इतना भारी है कि सारा देश उसके बोझ तले दबा जा रहा है. वह अकेला अपने मन की बात करता रहता है और सबको उसकी सुननी पड़ती है. वो अपने मन की बात सब से कर सकता है मगर क्या मजाल कि कोई उससे अपने मन की बात कह सके?
वह किसी की नहीं सुनता. रेल दुर्घटना में एक हजार से अधिक लोग मारे गए मगर उसने उनकी चीख पुकार तक नहीं सुनी.
एक राज्य मणिपुर करीब एक माह से जल रहा है, लोग चीख रहे हैं मगर शहंशाह-ए-हिंद किसी की नहीं सुनता. या तो वो किसी दुर्घटना स्थल पर जाता नहीं और अगर जाता है तो अपने मन की बात कह कर और फोटू खिचवा कर चम्पत हो जाता है. पीड़ित और पीड़ितों की देखभाल करने वाले लोग मुंह ताकते रह जाते हैं
उसे न तो अपने संगी साथियों की दरकार है न अपने मंत्रियों की. वो तो बस करता रहता हैं मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, और मैं. वह मैं, मैं, मैं और मैं कहीं छुपम छुपाई में नहीं करता बल्कि संसद में अपने सभी सभासदों के सामने मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, करता रहता है और उसके गिरोह के लोग भी उसका मुंह देखते रह जाते हैं.
ईश्वर जानें कि उसके सभासदों ने क्या सोचा होगा या उसका क्या अर्थ निकाला होगा मगर जिसने भी सुना वह हक्का बक्का रह गया था?
ये नौबत यूं आई कि शहंशाह-ए-हिंद ने एक सेठ की दलाली शुरू कर दी थी. दलाली तो वह बहुत दिनों से कर रहा था; मगर भांडाफोड़ अभी हुआ था. वह भी एक विदेशी संस्था द्वारा
देसी को तो शहंशाह-ए-हिंद अपने ठेंगे पर रखता है.
जिस सेठ की दलाली शहंशाह-ए-हिंद करता रहा था, उसने कुछ छद्म कम्पनियाँ बना ली थी और उन कंपनियों में २०००० करोड रुपया न जाने कहाँ से आया, किसने दिया, क्यों दिया और कैसे दिया की भनक उसके विपक्षी दल के उस सांसद को लग गई थी जिसे शहंशाह-ए-हिंद ने पप्पू बनाने हेतु करोड़ों रुपया खर्च कर डाला था.
ये अकूत धन वही सेठ देता था जिसकी दलाली शहंशाह-ए-हिंद वर्षों से करता आ रहा था. मगर अब बारी थी पप्पू की. पप्पू ने शहंशाह-ए-हिंद का चप्पू बना डाला था.
विपक्ष से विरोध करने वाला भी उसके सभासदों में से एक था. विरोधी सभासद ने संसद में ही हंगामा खड़ा कर दिया था और पूछा कि शहंशाह-ए-हिंद बताए कि सेठ से उसके क्या रिश्ते हैं?
इस पर शहंशाह-ए-हिंद चुप. और जब बोला तो वही मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं. उसके अपने दल के सभासद चुप. उनको चुप देख कर फिर उसने मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं कर दी. विरोधी ने जो प्रश्न पूछे थे, उनका उत्तर अब भी नहीं दिया और सिर्फ मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं ही करता रहा.
उसके अतिरिक्त शहंशाह-ए-हिंद ने जो कुछ बोला उसमें सिर्फ विरोधी के नाना, नानी, मामा, मामी, दादा, दादी, माँ, चाची चाचा, ताई ताऊ तक को कोसना था मगर उन प्रश्नों के बारे में कुछ नहीं बोला जो पूछे गए थे. उन सवालों को सिरे से अनसुना कर दिया जो विरोधी ने पूछे थे और मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं ही करता रहा.
उसी दौरान वह यह डींग मार बैठा था कि एक अकेला मैं, सब पर भारी. मगर विरोधी सभासद अपने प्रश्न वैसे ही दागते रहे जैसे उन्होंने सभा में पूछे थे और जो अभी तक अनुत्तरित थे.
शहंशाह-ए-हिंद का तानाशाही में विश्वास था. उसने अपने गुर्गों से विरोधी सभासद के खिलाफ मुकदमे दर्ज करवा दिए, तत्परता के साथ उसे दो वर्ष की कैद की सजा दिलवा दी और उसी दिन विपक्ष के उस सभासद को संसद से बाहर निकलवा दिया.
दो दिन बाद उसका सरकारी बंगला भी छीन लिया गया. मगर विपक्ष का सांसद होशियार था, उसने तय तारीख से पहले ही बंगला खाली कर दिया. उसने बंगला तय तारीख से पूर्व ही छोड़ कर शहंशाह-ए-हिंद के मुंह पर एक तमाचा और जड़ दिया था.
“न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी,” छाती ठोकते हुए शहंशाह-ए-हिंद ने तो सोचा था कि सभासदी और घर छिन जाने के बाद तो वो चुप हो ही जाएगा.
मगर उस सभासद पर तो अब भी कोई असर नहीं हुआ था. बल्कि वह तो अब और मुखर हो उठा क्योंकि अब उसके पास खोने को कुछ भी शेष नहीं था. वह तो स्वच्छंद हो चुका था. उस पर अब न कोई बंधन था न कोई बाधा.
शहंशाह-ए-हिंद अगर राजहठ से काम ले रहा था तो विपक्ष का सभासद बालहठ से. वो तो अब हर तरह से आज़ाद हो चुका था. अब उस पर न था कोई बंधन और न थी कोई अड़चन. वह एकदम स्वतंत्र और स्वच्छंद हो चुका था. उसने शहंशाह-ए-हिंद पर और तेज वार करने शुरू कर दिए थे.
अब शहंशाह-ए-हिंद सिर खुजलाते फिर रहे हैं कि विपक्ष के सांसद को सजा दिलवा कर उसने ठीक किया था या गलत? उसे इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं मिल पा रहा है.
ऐसे प्रश्नों का जिनका कोई उत्तर न दे पाए तो उसका उत्तर इतिहास दिया करता है जो भविष्य के गर्भ में है. हम भी उत्तर के इंतज़ार में हैं. देखते हैं क्या उत्तर मिलता है?
अगर किसी विद्वान पाठक को उत्तर मिल जाए तो इस नाचीज़ लेखक को भी बता देना.
वैसे चलते चलते इतना बता देते हैं कि क्रूर के साथ इतिहास बहुत क्रूर हुआ करता है. वह किसी पर रहम नहीं किया करता है. अगर इतिहास रहम करता तो लोगों को हिटलर और मुसोलिनी के अत्याचारों का ज्ञान कैसे होता?
लोग कैसे जान पाते कि वे तानाशाह कितने क्रूर और निर्दयी थे? मगर तानाशाहों को अपनी क्रूरता का कोई एहसास नहीं हो पाता है. इसी कारण आमजन और तानाशाहों के बीच संघर्ष जारी रहता है.
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