मैं. मैं और मैं (कहानी) हम एकांत में रहते हैं. एकांत अच्छा लगता है. एकांत मुक्त करता है. एकांत एकाग्र होने में मदद करता है. अगर आपको समय का सकारात्मक और सृजनात्मक सदुपयोग करना है तो एकांत को चुनो. एकांत को अपनाओ. एकांत को जीओ, एकांत को पीओ, एकांत को खाओ, एकांत को ओढ़ो, एकांत को पहनो और फिर देखो एकांत आनंद. अरे आप तो ये पढ़ कर घबरा ही गए कि आज किस पागल लेखक से पाला पड़ा है जो एकांत को खाने, पीने, ओढ़ने, पहनने की कह रहा है. एकांत भी कोई खाने, पीने और ओढ़ने पहनने की चीज है? आपने ठीक कहा हमारे प्रिय प्रबुद्ध पाठक. एकांत में जीने, खाने, पीने और ओढ़ने का अर्थ है एकांत में ही खो जाओ. उसी में डूब जाओ जिससे किसी पुरुष को आभास न रहे कि कोई कमला, विमला, निर्मला भी है और स्त्री को आभास न रहे कि कोई मोहन, सोहन और त्रिलोचन भी है. मगर एकांत के विपरीत अकेलापान काटता है. आजकल हम अकेलापन अनुभव कर रहे हैं. अकेलापन क्यों अनुभव कर रहे हैं? क्योंकि आजकल हम सिर्फ मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं ही सुनते रहते हैं. अब आप ही बताएं कि जब मैं, मैं, मैं, म...
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राजकपूर की याददाश्त गज़ब की थी. एक बार वे नर्गिस की माँ से मिलने उनके निवास पर गए थे. नर्गिस की माँ जद्दन बाई, अपने समय की बेहद खूबसूरत तवायफ थी और वे इतनी दूरंदेशी थी कि बहुत समय पूर्व ही उसने अंदाज़ लगा लिया था कि आज़ादी के बाद तवायफों की जिंदगी कठिन होने वाली है. जद्दन बाई पहली तवायफ थी जो चलचित्रों में स्थाई रूप में नायिका बनी और चलचित्र निर्माण भी किया. इसी जद्दन बाई की बेटी थी मशहूर अदाकारा नर्गिस. नर्गिस के पिता ब्राह्मण थे और माँ मुस्लिम. एक बार राजकपूर जद्दन बाई से मिलने गए. दरवाज़ा खोला नर्गिस ने. नर्गिस उस समय बेसन के पकौड़े बना रही थी. दरवाज़ा खोलते वक्त उसने अपनी जुल्फों को अपने रुख से ऊपर करने के लिए बेसन सने हाथ से ऊपर किया तो उसके बालों पर बेसन लिपट गया. राजकपूर उस छवि के इतना कायल हो गए कि वे उसको मुद्दत तक न भूल पाए और जब मौका मिला तो “बाबी” चलचित्र बना डाला. याद होगा न कि उस फिल्म में भी नायिका बेसन सने हाथों से लटों को संभाले हुए दरवाज़ा खोलती है. राजकपूर को नर्गिस के एक नृत्य की भंगिमा और मुद्रा इतनी पसंद आई कि उन्होंने उसे अपनी फिल्म कम्पनी का चिन्ह ही बना ड...
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